Tuesday, January 31, 2012
शायर गुनगुना रहा था---------
In Class nine i had written these lines......
कोई शायर गुनगुनाता हुआ,अपने प्रेयसी की खोज में,इन पत्थरों से, इन वृक्षों से उसका पता पूछता है। ये हवाएँ,जो तटोँ पर अपने बहाव का मिजाज बना रही है। वादों और इरादों की कोई जगह नहीं। न पाबंदी न कोई शर्त। जिंदगी की रफ्तार से गुफ्तगु करती हुई। अपनी क्षमता को निरंतर छिलती हुई। निरंतर किसी अन्वेषण की चिराकांक्षा। जीवन कोई कविता नहीं, कोई कहानी नहीं,वो जिस्म और रूह का कतरा-कतरा, जर्द-जर्द पिघलते हुए, संघर्ष की अंतिम पूर्णाहुति है। प्रकृति की निश्छलता अपनी ध्वनि के साथ अहर्निश गति में शायर फिर गुनगुनाता है। कुछ छूटे हुए शब्दों की तलाश है,कुछ टूटे हुए वादों की कसक, बिना इंतजार किसी ‘फासलें बहार‘ का। अपने जीवन के सत्य को पूर्ण करने के लिए,अपने अधूरेपन को पूर्ण करने के लिए,दिशाओं की खाक छानता, जिज्ञासा व आश्चर्य के उच्छल तरंगों से घिरा। चिंतन व क्रिया की संधि पर समय का सेतु लिख रहा था। शायर गुनगुना रहा था-----
दर्द की बारिकयाँ थीं, अनुभूति के रेशेदार छल्ले पर सृजन के दंभ की उद्घोषणा कर रहा था। पगडंडियों से उठती हुई,धूल की कहानियाँ,उसके मानस में स्वभाविक विकास का उत्थान कर रही थी,सत्य के कुछ टुकड़े बिखरे हुए थे। समय की हलक में दर्द चुभता था। प्रेयसी की स्मृति,उसके नयनों को, उसकी आदतों को,उसकी जरूरतों को कातर बना रही थी। नम आखों से वैश्विक उत्कर्ष की माँग कर रहा था। वह कर्त्तव्यों के साथ खड़ा हुआ अपने शिविर में जा रहा था, शायर गुनगुना रहा था।
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